engineering mechanics 2 (कार्य, शक्ति एवं ऊर्जा )
कार्य , शक्ति एवं ऊर्जा
कार्य (Work):
किसी वस्तु पर आरोपित बल एवं उस बल के द्वारा किये गए विस्थापन के गुणक को कार्य कहते है। यदि विस्थापन आरोपित बल की दिशा से भिन्न दिशा में होता है तब कार्य के परिमाण को विस्थापन एवं आरोपित बल के विस्थापन की दिशा में घटक का गुणन कर ज्ञात किया जा सकता है।
W = FxD
जहां F आरोपित बल है एवं D बल की दिशा में विस्थापन है
इकाई : F - न्यूटन , D - मीटर, अतः W =न्यूटन मीटर = जुल
विस्थापन (Displacement) :
विस्थापन एक सदिश राशि है, यह धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है, यदि कोई वास्तु किसी बिंदु से गति प्रारम्भ करती है एवं किसी आड़े तिरछे मार्ग पर गति करती है तब गति प्रारम्भ करने के बिंदु से गति समाप्त करने के बिंदु के बीच की न्यूनतम दुरी को विस्थापन माना जाता है।
शक्ति (Power):
कार्य (Work):
किसी वस्तु पर आरोपित बल एवं उस बल के द्वारा किये गए विस्थापन के गुणक को कार्य कहते है। यदि विस्थापन आरोपित बल की दिशा से भिन्न दिशा में होता है तब कार्य के परिमाण को विस्थापन एवं आरोपित बल के विस्थापन की दिशा में घटक का गुणन कर ज्ञात किया जा सकता है।
W = FxD
जहां F आरोपित बल है एवं D बल की दिशा में विस्थापन है
इकाई : F - न्यूटन , D - मीटर, अतः W =न्यूटन मीटर = जुल
विस्थापन (Displacement) :
विस्थापन एक सदिश राशि है, यह धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है, यदि कोई वास्तु किसी बिंदु से गति प्रारम्भ करती है एवं किसी आड़े तिरछे मार्ग पर गति करती है तब गति प्रारम्भ करने के बिंदु से गति समाप्त करने के बिंदु के बीच की न्यूनतम दुरी को विस्थापन माना जाता है।
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Engineering Mechanics |
कार्य करने की दर को शक्ति कहते है।
P = W/t = FxD/t = Fx v , ( v वस्तु का वेग है )
इकाई : न्यूटन मीटर/सेकण्ड = जुल/सेकण्ड = वॉट
ऊर्जा (Energy) :
कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते है।
इकाई :जुल
उर्जा के सामान्य प्रकार ;
KE = mv2/2
जहां ,
m = वस्तु का द्रव्यमान
v = वस्तु का वेग
स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy) : वस्तु की स्थिति के कारण उसमे संचित ऊर्जा को स्थितिज ऊर्जा कहते है।
PE = mgh
जहां ,
m = वस्तु का द्रव्यमान
g = गुरुत्वीय त्वरण
h = वस्तु की स्थिति या सतह से ऊंचाई
[ Mechanics of Life ]
अब चर्चा करते है कैसे हम अपनी ऊर्जा का सदुपयोग कर वांछित परिणाम प्राप्त करे , इसके लिए हमें यह समझना जरुरी है कि कहाँ अपनी आतंरिक ऊर्जा खर्च करे और कहाँ बचाए। हमारे प्रणेता डॉ. अरुण सिंह भदौरिया ने हमें ये बात इस कहानी के माध्यम से समझाई थी, आइये आपको उसी कहानी से समझाने का प्रयत्न करते हैं।
P = W/t = FxD/t = Fx v , ( v वस्तु का वेग है )
इकाई : न्यूटन मीटर/सेकण्ड = जुल/सेकण्ड = वॉट
ऊर्जा (Energy) :
कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते है।
इकाई :जुल
उर्जा के सामान्य प्रकार ;
- गतिज ऊर्जा (Kinetic Energy)
- स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy)
- नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy)
- रासायनिक ऊर्जा (Chemical Energy)
- विद्युतीय ऊर्जा (Electrical Energy)
- सौर ऊर्जा (Solar Energy)
KE = mv2/2
जहां ,
m = वस्तु का द्रव्यमान
v = वस्तु का वेग
स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy) : वस्तु की स्थिति के कारण उसमे संचित ऊर्जा को स्थितिज ऊर्जा कहते है।
PE = mgh
जहां ,
m = वस्तु का द्रव्यमान
g = गुरुत्वीय त्वरण
h = वस्तु की स्थिति या सतह से ऊंचाई
नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy) : नाभिकीय विखंडन के कारण उत्पन्न हुई ऊर्जा को नाभिकीय ऊर्जा कहते है।
रासायनिक ऊर्जा (Chemical Energy) : किसी भी अणु में परमाणुओं के बीच सहसंयोजक बंधन के कारण आयोजित ऊर्जा को नाभिकीय ऊर्जा कहते है।
विद्युतीय ऊर्जा (Electrical Energy) : . किसी भी विद्युतीय क्षेत्र में आवेशित कणो में संरक्षित ऊर्जा को विद्युतीय ऊर्जा कहते है। इस ऊर्जा को वांछित कार्य में रूपांतरित किया जा सकता है।
सौर ऊर्जा (Solar Energy) : सूर्य के द्वारा प्रकाश एवं ऊष्मा के रूप में मिलने वाली ऊर्जा को सौर ऊर्जा कहते है
कुछ और भी प्रकार आप खोज सकते है।
ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत (Law of conservation of energy) :
किसी अयुक्त निकाय (isolated system) की कुल उर्जा समय के साथ नियत रहती है। ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है, न ही नष्ट किया जा सकता है , केवल इसे एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। इसे ऊर्जा के अविनाशिता का सिद्धांत भी कहते है। कार्य को ऊर्जा एवं ऊर्जा को कार्य में परिवर्तित किया जा सकता है।
उष्मागतिकी का प्रथम नियम भी वास्तव में उर्जा संरक्षण के नियम का एक परिवर्तित रूप है। जिस पर हम आगे के ब्लॉग में चर्चा करेंगे।
कुछ और भी प्रकार आप खोज सकते है।
ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत (Law of conservation of energy) :
किसी अयुक्त निकाय (isolated system) की कुल उर्जा समय के साथ नियत रहती है। ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है, न ही नष्ट किया जा सकता है , केवल इसे एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। इसे ऊर्जा के अविनाशिता का सिद्धांत भी कहते है। कार्य को ऊर्जा एवं ऊर्जा को कार्य में परिवर्तित किया जा सकता है।
उष्मागतिकी का प्रथम नियम भी वास्तव में उर्जा संरक्षण के नियम का एक परिवर्तित रूप है। जिस पर हम आगे के ब्लॉग में चर्चा करेंगे।
वैद्युत सेलों द्वारा रासायनिक ऊर्जा वैद्युत ऊर्जा में परिणत होती है। इस बिजली से हम प्रकाश पैदा कर सकते हैं। सूर्य के प्रकाश से प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा प्रकाश-ऊर्जा पेड़ों की रासायनिक ऊर्जा में परिणत होती है। यांत्रिक कार्य के द्वारा जनित्र को घुमाकर विद्युतीय ऊर्जा परिणित की जा सकती है। ऐसी क्रियाओं द्वारा यह स्पष्ट है कि विभिन्न परिवर्तनों में ऊर्जा का केवल रूप बदलता है। ऊर्जा के मान में कोई अंतर नहीं आता।
ऊर्जा-अविनाशिता-सिद्धांत की ओर पहला पद प्रसिद्ध डच वैज्ञानिक क्रिश्चियन हाइगेंज़ ने उठाया
हाइगेंज़ ने कहा कि जब दो पूर्णत: प्रत्यास्थ (इलैस्टिक) पिंड़ों में संघात (टक्कर) होता है तो उनके द्रव्यमानों और उनके वेगों के गुणनफलों का योग संघात के बाद भी उतना ही रहता है जितना टक्कर के पहले था। इसे संवेग संरक्षण का सिद्धांत भी कहते है।
अर्थात टक्कर के पहले का संवेग = टक्कर के बाद का संवेग
[संवेग = संहति (द्रव्यमान) x वेग = m x v ]
इसलिए m1v1 = m2v2
अब हम चर्चा करेंगे कि कैसे हम अपनी जिंदगी में ऊपर वर्णित परिभाषाओं को लागु कर सकते है।
अपनी दैनिक जिंदगी में विशेषकर हमारी नौकरी में अंतिम परिणाम का महत्त्व होता है, आपने कितना प्रयास किया इस बात का महत्व नहीं होता हैं ; अर्थात आपने कितनी दुरी तय की इससे मतलब नहीं है आपने कितना विस्थापन किया उस आधार पर आपके कार्य का परिमाण मापा जाएगा , आप निर्धारित समय सीमा में जितना अधिक दे पाएंगे आप उतने अधिक कार्यकुशल माने जायेंगे।
यहाँ अधिक मेहनत करने के बजाय सही दिशा में मेहनत करने की आवश्यकता है। (Here smart work required on the place of laborious work)
अपनी दैनिक जिंदगी में विशेषकर हमारी नौकरी में अंतिम परिणाम का महत्त्व होता है, आपने कितना प्रयास किया इस बात का महत्व नहीं होता हैं ; अर्थात आपने कितनी दुरी तय की इससे मतलब नहीं है आपने कितना विस्थापन किया उस आधार पर आपके कार्य का परिमाण मापा जाएगा , आप निर्धारित समय सीमा में जितना अधिक दे पाएंगे आप उतने अधिक कार्यकुशल माने जायेंगे।
यहाँ अधिक मेहनत करने के बजाय सही दिशा में मेहनत करने की आवश्यकता है। (Here smart work required on the place of laborious work)
अब चर्चा करते है कैसे हम अपनी ऊर्जा का सदुपयोग कर वांछित परिणाम प्राप्त करे , इसके लिए हमें यह समझना जरुरी है कि कहाँ अपनी आतंरिक ऊर्जा खर्च करे और कहाँ बचाए। हमारे प्रणेता डॉ. अरुण सिंह भदौरिया ने हमें ये बात इस कहानी के माध्यम से समझाई थी, आइये आपको उसी कहानी से समझाने का प्रयत्न करते हैं।
सुंदरकांड में श्री हनुमान जी ने ऊर्जा के सदुपयोग का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया हैं।
सीता माता की खोज में वानरों का एक समूह जब समुद्र तट पर पहुंचा तो सारे वानर हिम्मत हार गए, तब हनुमान जी ही इस १०० योजन के समुद्र को पार कर सकते थे उन्होंने समुन्द्र लांघने के लिए छलांग लगायी, उन्हें ये पता था कि अपनी आतंरिक ऊर्जा का संरक्षण करके ही वे समुन्द्र पार कर सकते है, कैसे उन्होंने अपनी बुद्धि एवं विनम्रता का उपयोग कर अपनी ऊर्जा संरक्षित की एवं बहुत अधिक आवश्यकता पड़ने पर ही उसका उपयोग किया इसका सुंदर वर्णन रामायण के इस भाग में किया गया हैं।
जैसे,
चौपाई : जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥
दोहा : राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥ [१]
भावार्थ:-देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान्जी से यह बात कही : -
आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर हनुमान्जी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ, तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा,तुम मुझे खा लेना ।
हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान्जी ने कहा- तो फिर मुझे खा ले न ।
उसने योजनभर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए॥
जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान्जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया और उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था। तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्जी हर्षित होकर चले। [१]
"हमारे जीवन में भी कई ऐसे मौके आते है जब हम किसी उद्देश्य के लिए कार्य कर रहे होते है और कोई आकर हमें उलझा देता है, ये जानते हुए भी कि इसे परास्त करना हमारा उद्देश्य नहीं हैं फिर भी हम उसे परास्त करने में अपनी पूरी ऊर्जा खर्च कर देते है, नतीजन हमारा ही तनाव बढ़ता है। खासकर मीटिंग्स में आपने देखा होगा कि कई बार चर्चाएं अपने मुख्य विषय से भटक जाती है। यहाँ हनुमान जी ने यही सीख दी है कि जो चीजे हमारे उद्देश्य में सहायक नहीं है उन पर ऊर्जा नष्ट नहीं करे। हनुमान जी चाहते तो सुरसा से युद्ध भी कर सकते थे किन्तु उन्होंने यहाँ अपनी ऊर्जा नष्ट करना उचित नहीं समझा। यदि कोई अनावश्यक आपसे बहस कर रहा है तो उसका प्रतिउत्तर दे किन्तु यदि यदि बहस उसके तंग दिमाग से आ रही है तो बेहतर होगा कि छोटे बनकर विनम्रता से वहां से निकल जाये। सामने वाले का अहंकार भी संतुष्ट हो जाएगा और वो आपको हानि भी नहीं पहुचाएगा। कई बार खासकर कस्टमर केयर का जॉब करने वालो को इस प्रकार के लोगो का सामना करना पड़ता है। "
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
दोहा : हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥[१]
भावार्थ:-समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात् अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे )
हनुमान्जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ? [१]
"यहाँ सीखने वाली बात ये हैं कि जब भी किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए जाये तो सतत प्रयास करे अन्यथा आपकी गति धीमी पड़ जाएगी और बाद में काम के दबाव बढ़ने पर आप ऊर्जा का सदुपयोग शायद न कर पाए।"
चौपाई : निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान् कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥[१]
भावार्थ:-समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे (और जल में गिर पड़ते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान्जी से भी किया। हनुमान्जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया। पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहाँ जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे। [१]
"यहाँ लक्ष्य पूर्ति के मार्ग में बाधाओं को कैसे साहस के साथ दूर करे ये बताया गया है, यहाँ आपको अपनी शक्ति का उपयोग करना पड़ेगा, बस हमें पहचानने की आवश्यकता है कि कौन बाधा है और कौन नहीं । इसके बाद की कथा सभी को पता है कि कैसे अपनी इस संचित ऊर्जा का उपयोग कर हनुमान जी ने लंका जलायी ।
अब ये आप पर निर्भर करता हैं कि आप अपनी ऊर्जा का रूपांतरण किस रूप में करके कैसे परिणाम प्राप्त करते है, क्योंकि ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है न ही नष्ट किया जा सकता है इसे केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है।
[१] संपूर्ण सुन्दर कांड, a windows phone application.
इंग्लिश में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे :
http://blog.mechanicsoflife.in/2016/05/engineering-mechanics-work-power-energy.html
सीता माता की खोज में वानरों का एक समूह जब समुद्र तट पर पहुंचा तो सारे वानर हिम्मत हार गए, तब हनुमान जी ही इस १०० योजन के समुद्र को पार कर सकते थे उन्होंने समुन्द्र लांघने के लिए छलांग लगायी, उन्हें ये पता था कि अपनी आतंरिक ऊर्जा का संरक्षण करके ही वे समुन्द्र पार कर सकते है, कैसे उन्होंने अपनी बुद्धि एवं विनम्रता का उपयोग कर अपनी ऊर्जा संरक्षित की एवं बहुत अधिक आवश्यकता पड़ने पर ही उसका उपयोग किया इसका सुंदर वर्णन रामायण के इस भाग में किया गया हैं।
जैसे,
चौपाई : जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥
दोहा : राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥ [१]
भावार्थ:-देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान्जी से यह बात कही : -
आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर हनुमान्जी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ, तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा,तुम मुझे खा लेना ।
हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान्जी ने कहा- तो फिर मुझे खा ले न ।
उसने योजनभर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए॥
जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान्जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया और उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था। तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्जी हर्षित होकर चले। [१]
"हमारे जीवन में भी कई ऐसे मौके आते है जब हम किसी उद्देश्य के लिए कार्य कर रहे होते है और कोई आकर हमें उलझा देता है, ये जानते हुए भी कि इसे परास्त करना हमारा उद्देश्य नहीं हैं फिर भी हम उसे परास्त करने में अपनी पूरी ऊर्जा खर्च कर देते है, नतीजन हमारा ही तनाव बढ़ता है। खासकर मीटिंग्स में आपने देखा होगा कि कई बार चर्चाएं अपने मुख्य विषय से भटक जाती है। यहाँ हनुमान जी ने यही सीख दी है कि जो चीजे हमारे उद्देश्य में सहायक नहीं है उन पर ऊर्जा नष्ट नहीं करे। हनुमान जी चाहते तो सुरसा से युद्ध भी कर सकते थे किन्तु उन्होंने यहाँ अपनी ऊर्जा नष्ट करना उचित नहीं समझा। यदि कोई अनावश्यक आपसे बहस कर रहा है तो उसका प्रतिउत्तर दे किन्तु यदि यदि बहस उसके तंग दिमाग से आ रही है तो बेहतर होगा कि छोटे बनकर विनम्रता से वहां से निकल जाये। सामने वाले का अहंकार भी संतुष्ट हो जाएगा और वो आपको हानि भी नहीं पहुचाएगा। कई बार खासकर कस्टमर केयर का जॉब करने वालो को इस प्रकार के लोगो का सामना करना पड़ता है। "
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
दोहा : हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥[१]
भावार्थ:-समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात् अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे )
हनुमान्जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ? [१]
"यहाँ सीखने वाली बात ये हैं कि जब भी किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए जाये तो सतत प्रयास करे अन्यथा आपकी गति धीमी पड़ जाएगी और बाद में काम के दबाव बढ़ने पर आप ऊर्जा का सदुपयोग शायद न कर पाए।"
चौपाई : निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान् कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥[१]
भावार्थ:-समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे (और जल में गिर पड़ते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान्जी से भी किया। हनुमान्जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया। पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहाँ जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे। [१]
"यहाँ लक्ष्य पूर्ति के मार्ग में बाधाओं को कैसे साहस के साथ दूर करे ये बताया गया है, यहाँ आपको अपनी शक्ति का उपयोग करना पड़ेगा, बस हमें पहचानने की आवश्यकता है कि कौन बाधा है और कौन नहीं । इसके बाद की कथा सभी को पता है कि कैसे अपनी इस संचित ऊर्जा का उपयोग कर हनुमान जी ने लंका जलायी ।
अब ये आप पर निर्भर करता हैं कि आप अपनी ऊर्जा का रूपांतरण किस रूप में करके कैसे परिणाम प्राप्त करते है, क्योंकि ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है न ही नष्ट किया जा सकता है इसे केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है।
[१] संपूर्ण सुन्दर कांड, a windows phone application.
इंग्लिश में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे :
http://blog.mechanicsoflife.in/2016/05/engineering-mechanics-work-power-energy.html
सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteDhanyavad sir
DeleteYou might qualify for a new solar energy rebate program.
ReplyDeleteDetermine if you are eligble now!
Bahut sunder prastuti. Hindi ka lekhan bhi bahut achchha hai.
ReplyDeleteHanumaan ji to balshali hone ke sath sath buddhimaan bhi the, wakai unhone energy ka optimum use sikhaya hai.
Fantastic explanation
ReplyDeleteSuperv
ReplyDeleteشركة الصفرات للتنظيف بالرياض
ReplyDeleteشركة تنظيف منازل بالدمام وبالخبر